2 April 2012

गर्म-गोस्त

गोस्त –की-दूकान {कवि-अजय]
गली के उस चौराहें पर ,
गोस्त की दुकान हैं,
पापा का हाथ बटाने,
अक्सर सलीम आ जाती हैं |
सलीमा कमसिन कुंवारी हैं,
उघरता बदन भरपूर जवानी हैं
आशिको और व्यभिचारियो की,
घूरती निगाहें ,
क्या यही हर जवानी की कहानी हैं,?
गोस्त खरीदने वाले लोग अक्सर ,
गोस्त की ताजगी तसव्वुर से,
जान जाते हैं,
ताज़े गोस्त को देखते हैं ,
सलीमा को देखते हैं,
अर्थपूर्ण मुस्कान से मुस्कराते हैं|
सलीमा अक्सर खड़ी-खड़ी ,
नशेड़ी –शबाबी आँखों की चुभन ,
महसूस करती हैं |
कभी-कभी उसका मन कहता हैं ,
की चाकू से खुद के अंगों को,काटकर
तराजू पर रख दें |
मिमियाती बकरी सा कट जाएँ ,
उसका भी गोस्त बिकें ,
ताकि घूरती आँखों की चुभन से ,
उसका संवेदी वजूद बच जाएँ

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