23 September 2013

मुह ढक कर निकलना उसकी मजबूरी हैं,जबसे



इस शहर की खूबसूरती पर जंग लगी है,तबसे  |

मुह ढक कर निकलना उसकी मजबूरी हैं,जबसे||


उसके हुश्न की उपमा चाँद-तारों से क्या दूँ,यारो |

वों  काले बादलों में चमकती,बिजली हैं प्यारों ||


गुलाबी रंगत ,अनार  सी  दहकती ,उसकी रंगत|

किताबो और सुंदर पाठो की दिन भर की संगत ||


किसी गली ,नुक्कड़ पर बजबजाती नाले सी |

घूरती वासना भरी  आँखे, उसे चुभे भाले सी||


इस दर्द कों हंसकर,रो कर, जब्त कर जाती हैं वों|

माँ पूछे तो मुस्कुरा कर, मुकर  जाती हैं वों ||


कालेज कल भी जाना हैं, उसे उसी गली से|


लौट कर भी आना हैं , उसे उसी गली से ||
       
{मुझे छन्दों का कोई ज्ञान नही हैं} 
-रचनाकार -अजय यादव 

11 comments:

  1. सामयिक सार्थक अभिव्यक्ति
    ना जाने हालात कब बदलेंगे

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  2. सच बयाँ करते सुन्दर रचना लिखी है अजय भाई

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  3. बहुत सार्थक कटाक्ष किया है .. बहुत सुन्दर

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  4. बहुत सटीक प्रस्तुति...

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  5. बहुत ही सुन्दर , सच कहती रचना !

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  6. आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
    आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

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  7. आज का सच बताती पंक्तियाँ।

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  8. अच्छा कटाक्ष और आज के हालात का दर्द उमड़ पडा ..सुन्दर रचना ..काश अब भी आँखें खुलें
    भ्रमर ५

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  9. बहुत सशक्त बिम्ब को साधा है आपने छंद हो या छंद मुक्त असल बात है बात को साधना।

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