इस शहर की खूबसूरती पर जंग लगी है,तबसे |
मुह ढक कर निकलना उसकी मजबूरी हैं,जबसे||
उसके हुश्न की उपमा चाँद-तारों से क्या दूँ,यारो |
वों काले बादलों में
चमकती,बिजली हैं प्यारों ||
गुलाबी रंगत ,अनार सी दहकती ,उसकी रंगत|
किसी गली ,नुक्कड़ पर बजबजाती नाले सी |
घूरती वासना भरी आँखे, उसे चुभे भाले सी||
इस दर्द कों हंसकर,रो कर, जब्त कर जाती हैं वों|
माँ पूछे तो मुस्कुरा कर, मुकर जाती हैं वों ||
कालेज कल भी जाना हैं, उसे उसी गली से|
लौट कर भी आना हैं , उसे उसी गली से ||
{मुझे छन्दों का कोई ज्ञान नही हैं}
-रचनाकार -अजय यादव
सामयिक सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteना जाने हालात कब बदलेंगे
सच बयाँ करते सुन्दर रचना लिखी है अजय भाई
ReplyDeleteबहुत सार्थक कटाक्ष किया है .. बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर , सच कहती रचना !
ReplyDeleteआप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
आभार |
Deleteआज का सच बताती पंक्तियाँ।
ReplyDeleteअच्छा कटाक्ष और आज के हालात का दर्द उमड़ पडा ..सुन्दर रचना ..काश अब भी आँखें खुलें
ReplyDeleteभ्रमर ५
ReplyDeleteबहुत सशक्त बिम्ब को साधा है आपने छंद हो या छंद मुक्त असल बात है बात को साधना।